जब संविधान हीं घायल हो ( - सूरज सिंह राजपूत )
दोस्तों,
16 अप्रैल 2020, महाराष्ट्र पालघर में जो हृदय विदारक घटना पालघर में घटी, निंदनीय थी, प्रशासन की उपस्थिति में भीड़ के द्वारा निर्दोष साधुओं की निर्मम हत्या.... !
जब समाज साधुओं पर भी प्रहार करें फिर समाज किस दिशा में जा रहा है कह पाना कठिन हों जाता है, इस घटना से कलमकार के आहत मन द्वारा लिखी गई रचना आप सभी के सुपुर्द करता हूं।
शीर्षक : जब संविधान हीं घायल हो
मानवता पर प्रहार हुआ,
खादी का खून नहीं खौला।
खाकी लाचार हीं खड़ा रहा,
बंदूकी बोल नहीं बोला।
खाकी के संरक्षण में,
देखो फिर भगवा घायल है।
है लोकतंत्र भी बिवस पड़ा,
अब लोकतंत्र भी घायल है।
जो थे भगवा के वीर पुत्र,
अब सत्ता के कायल हैं।
पैरों में उनके बेड़ी या,
बिन घुंघरू के पायल हैं।
है लोकतंत्र कई बार मरा,
मैं किस का विस्तार करूं।
जब संविधान हीं घायल हो,
मैं स्नेहलेप
भी कहां धरूं।
लोकतंत्र के सभी
प्रभारी,
मौन हुए है भारत में।
बैरी है चलता चला यहां,
जैसे शकुनी महाभारत
में।
मैं वह कलम नहीं हूं,
जो नोटों पर बिक जाए।
मैं वह कलम नहीं हूं,
जो दरबारों में दिख जाए।
चीख - चीख कहता हूं मैं,
वो कलम नहीं हो पाऊंगा।
मैं दिनकर का कलम दूत,
पन्नों को आग लगाऊंगा।
जब भी आवाज़ मुझे दोगे,
मैं इंकलाब बनजाऊंगा।
सीने पर गोली खाऊंगा,
या फांसी पर चढ़ जाऊंगा।
- सूरज सिंह राजपूत
20 अप्रैल 2020
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